हरित क्रांति से उपजी भ्रांति
19वीं और 20वीं शताब्दी में जो अकाल पड़े उनमें अन्न की कमी नही थी वरन उसकी वितरण व्यवस्था की कमियां थी | साथ ही 800 वर्ष के विदेशी शासन ने इस व्यवस्था को काफी कमजोर किया तथा आक्रंताओ ने अपना हित सर्वोपरि रखा |
इस सैंकड़ो वर्ष पुरानी व्यवस्था को अवैज्ञानिक घोषित कर तथा इस व्यवस्था को अन्न का कम उत्पादन बताते हुए सन 1950 के दशक में “अघिक अन्न उपजाओ” नामक कार्यक्रम शुरू हुआ इसके साथ ही सम्पूर्ण कृषि संस्कृति के केन्द्रीकरण की शुरुवात हुई | रासायनिक खाद जैसे यूरिया, सुपरफास्फेट आदि के कारखाने लगे और किसानों को अनिदन पर ये उर्वरक उपलब्ध कराए जाने लगे | हालांकि प्रारंभ के कुछ वर्षो तक किसानो ने इसके उपयोग में आनाकानी की लेकिन बाद में सस्ता, कम श्रम्साघ्य व उत्पादन बढ़ाने वाला समझकर अधिकाधिक उपयोग करने लगे |
यहाँ से आरंभ हुई हमारी अदुर्धर्शिता व कम समय में ज्यादा लेने की सोच की कहानी | यूरिया व् अन्य रासायनिक खाद के अधिक उपयोग से निम्न दुष्प्रभाव हुए:
- गाय का महत्त्व कम हुआ | जो खाद पहले गावं के किसान स्वयं बनाते थे उसकी जगह यूरिया, केंद्रीय कारखानों से आने लगी | इन कारखानों को सरकार अनुदान देती है ताकि यूरिया किसानों को सस्ती मिले लेकिन परिणाम विपरीत हुआ, अधिक अनुदान नेले की चाह में ये कारखाने इन उर्वरकों का अघिक खपत का प्रचार करने लगे | जिससे किसान उर्वरक का अघिक उपयोग करने लगे | आज इन उर्वरकों के अघिक उपयोग से कृषि भूमि ख़राब हो गयी है | सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जस्ता, लोहा आती की कमी हो गयी है | अब अघिक उर्वरक डालने से भी उपज बढ़ नही रही है लेकिन लागत बढ़ रही है |
- उर्वरकों के अधिक उपयोग से फसल की जल मांग भी बढती है | अत: अघिक पानी देने के लिये ट्यूबवैल खोदे गये, नहरे बनाई गयी | अच्छी फसल तो उचित मात्रा में तथा समय पर सिंचाई से ही होती है | किन्तु पानी का अत्यधिक उपयोग से हरित क्रांति तो आई लेकिन कई क्षेत्रों में भूजल, जमीन की सतह तक आ गया | नमक से जमीन सफ़ेद हो गयी है रेतीली भूमि जिसमें चावल की फसल लेना उचित नही था, पानी की उपलब्धता के कारण किसान ने यहाँ चावल पैदा किया और नतीजा, उस क्षेत्र की भूमि ख़राब हो चुकी है | सिंचाई के दुसरे साधन, ट्यूबवैल से सिंचाई में बिजली की आवश्यकता होती है और गाँव में बिजली कब आती है इसका समय निश्चित नही होता है | जब बिजली आती है तो जरोरत से अधिक सिंचाई कर दी जाती है | अधिक सिंचाई से एक और भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है वहीं नहरी इलाकों में पानी जमीन तक आ गया है | आज की परिभाषा में दोनों ही क्षेत्र मरुस्थलीकरण का शिकार हो गये है |
- उर्वरकों के अधिक उपयोग से कीड़ों और रोगों का भी प्रकोप बढ़ा है | उदाहरण के लिए यह सिद्ध हो चूका है की उर्वरकों के उपयोग को बढ़ाने से सोयाबीन में रेशेदार इल्ली का प्रकोप बढ़ता जाता है | आज स्तिथि यह है की 10 – 15 छिडकाव करने के बाद भी कीट नही मरता है और फसल नष्ट हो जाती है | कपास में गुलाबी लट (इल्ली) इसका सजीव उदाहरण है | अन्त में कर्ज के बोझ से दबा किसान आत्महत्या कर लेते है | यदि फसल बच जाती है तो उसमें इन कीटनाशकों का जहर मौजूद रहता है और यह हमारे शरीर में पहुंचकर कैंसर जैसे रोग पैदा करता है यानि जो भोजन शरीर रक्षा के लिए खाते है, वह वास्तव में शरीर नष्ट कर रहा है | व्यवसायिकता इस सीमा तक बढ़ गयी है की गोभी को सफ़ेद और भिन्डी को हर करने के लिए भी कीटनाशक रसायनों का प्रयोग किया जा रहा है |
- विज्ञानं का अर्थ प्रकर्ति के नियमों को समझना और उनके द्वारा मानव जीवन व् धरती पर रहने का शुद्ध पर्यावरण अच्छा बनाना है लेकिन पिछले 100 सालों में कृषि संसाधनों को विज्ञानं का प्रक्रति पर काबू पाने के लिए प्रयोग किया जा रहा है | किसान के भी दिमाग में यह बात अच्छी तरह बैठा दी गयी है की रासायनिक खाद व् कीटनाशक डालकर और अधिक सिंचाई करके कुछ भी, कहीं भी उगाया जा सकता है | चालीस-पचास साल तक धरती और प्रकर्ति ने माँ की तरह हमारी नादानियों को माफ़ किया, किन्तु अब उसने सबक सिखाने की तैयारी कर ली है | इसका पहला लक्षण है की उर्वरक डालने से न तो उपज बढती है न ही कीटनाशक से कीड़ा मरता है | सिंचाई के लिए तो पानी बचा ही नही है |
- रासायनिक खाद और कीटनाशकों से शायद नुकसान धीरे-धीरे होता, यदि ट्रेक्टर का उपयोग कृषि के लिए नही होता, किन्तु ट्रेक्टर ने “नीम चढ़ा करेला” जैसा खेती को बना दिया है | सभी काम ट्रेक्टर से होते है | लगातार इस ही सतह पर जुताई से भूमि में 10-12 इंच नीचे एक सीमेंट जैसी परत बन गयी है | हाल ही के प्रयोगों से यह सिद्ध हुआ है की बार-बार जुताई खासतौर पर सुखी भूमि या गर्मी में ट्रेक्टर की जुताई से भूमि में उपलब्ध खाद (ह्यूमस)बहुत तेजी से नष्ट होती है | सरल भाषा में कितना ही गोबर का खाद डालों यदि ट्रेक्टर से बार-बार जुताई हो रही है तो वह खाद हवा में उड़ जायेगी | हम जो समझ कर बैठें है की ट्रेक्टर की जुताई से जमीन में वर्षा जल का धारण अच्छा होता है और खरपतवार कम होते है, वह गलत साबित हो रहा है | यदि ऐसा होता तो जिन खेतों में पिछले 20-30 साल से ट्रेक्टर से जुताई हो रही है वहां की मिट्टी में सिंचाई की आवश्यकता बहुत कम होती और खरपतवार समूल नष्ट हो गये होते, लेकिन परिभाषा इसके विपरीत है |
- इसके साथ ही आये संकर बीज जिन्हें अत्यधिक उर्वरक और पानी चाहिए और अब तो जीन के हेरफेर से बने बीज भी आने लगे है, कीटरोधी फसलें जैसे बी.टी. कपास | जो की आसपास की कई फसलों को प्रदूषित कर सकते है | इन्हें “संकट” बीज कहना ही उचित होगा | इन सभी का बीज किसान स्वयं नही बना सकता है उसे हजारों रूपये में खरीदना ही पड़ना है जिनमें भी कई बार नकली बीज आ जाता है | कई बार वर्षा जल या नहर के पानी की कमी हो जाती है ऐसे में ये संकर किस्मों से उपज नही के बराबर मिलती है | कई गरीब किसान जिनके पास न तो खाद के पैसे होते है और न ही पानी, वे इन संकर बीजों को लगाकर दयनीय स्तिथि में आ जाते है |
साभार: डा. अरुण कुमार शर्मा (CAZRI)