जैव उवर्रकों का फसलों/सब्जियों में उपयोग एवं लाभ

आज कृषि उत्पादन को लगातार बढ़ाना कृषि वैज्ञानिकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। सघन खेती से मृदा में पोषक तत्व धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। इस कमी को रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से पूरा किया जाता है। अधिकांश किसान संतृप्त मात्रा में रासायनिक खाद के उपयोग के बावजूद इष्टतम उत्पादन लेने से वंचित हैं। अतः रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से होने वाला लाभ घटता जा रहा है। साथ ही मृदा स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर दिखाई पड़ रहा है, जिससे देश में स्थाई खेती हेतु खतरा पैदा हो रहा है। फसलों द्वारा भूमि से लिये जाने वाले प्राथमिक मुख्य पंोषक तत्वों- नत्रजन, सुपर फास्फेट एवं पोटाश में से नत्रजन का सर्वाधिक अवशोषण होता है क्योंकि इस तत्व की सबसे अधिक आवश्यकता होती है और शेष 55-60 प्रतिशत भाग या तो पानी के साथ बह जाता है या वायुमण्डल में डिनाइट्रीफिकेशन से मिल जाता है या जमीन में ही अस्थायी बन्धक हो जाते ंै है! वर्तमान परिस्थितियों में नत्रजनधारी उर्वरकों के साथ-साथ नत्रजन के वैकल्पिक स्रोतों का उपयोग न केवल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि मृदा की उर्वरा शक्ति को टिकाऊ रखने के लिये भी आवश्यक है। ऐसी स्थिति में जैव उर्वरकों का प्रयोग करना एकमात्र विकल्प के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। जैव उर्वरकों को बीजोत्पादन कार्यक्रम मे लेने पर 20 प्रतिशत तक उपज में वृद्धि पाई गई है।

जैव उर्वरक क्या है ?

जैव उर्वरक विशिष्ट प्रकार के जीवाणुओं का एक विशेष प्रकार के माध्यम, चारकोल, मिट्टी या गोबर की खाद में ऐसा मिश्रण है, जो वायुमण्डलीय नत्रजन को साइकल द्वारा पौधों को उपलब्ध कराती है या मिट्टी में उपलब्ध अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था मे परिवर्तित करके पौधों को उपलब्ध कराता है। इनके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों की 1/3 मात्रा तक की बचत हो जाती है।

जैव उर्वरकों का वर्गीकरण:

नाइट्रोजन पूर्ति करने वाले जैव उर्वरक यह जीवाणु सभी दलहनी फसलों व तिलहनी फसलों जैसे- सोयाबीन और मूँगफली की जड़ों में छोटी-छोटी ग्रन्थियों में पाया जाता है, जो सह जीवन के रूप में कार्य करते हुए वायुमण्डल में उपलब्ध नाइट्रोजन को पौधों को उपलब्ध कराता है। राइजोबियम जीवाणु अलग-अलग फसलों के लिये अलग-अलग होता है इसलिये बीज उपचार हेतु उसी फसल का कल्चर प्रयोग करना चाहिये।

जैव उर्वरकों से बीज उपचार करने की विधि:

जैव उर्वरकों के प्रयोग की यह सर्वोत्तम विधि है। 1 लीटर पानी में लगभग 100 ग्राम गुड़ डालकर उबालकर अच्छी तरह मिलाकर घोल बना लेते हैं। इस घोल को बीजों पर छिड़क कर मिला देते हैं जिससे प्रत्येक बीज पर इसकी परत चढ़ जाये !इसके उपरान्त बीजो को छायादार जगह में सुखा लेते हैं। उपचारित बीजों की बुवाई सूखने के तुरन्त बाद कर देनी चाहिये।

पौध जड़ उपचार विधि:

धान तथा सब्जी वाली फसलें, जिनके पौधों की जड़ों को जैव उर्वरकों द्वारा उपचारित किया जाता है। इसके लिये बर्तन में 5-7 लीटर पानी में एक किलोग्राम जैव उर्वरक मिला लेते हैं। इसके उपरान्त नर्सरी से पौधों को उखाड़कर तथा जड़ों से मिट्टी साफ करने के पश्चात 50-100 पौधों को बण्डल में बाँधकर जीवाणु खाद के घोल में 10 मिनट तक डुबो देते हैं। इसके बाद तुरन्त रोपाई कर देते हैं।

कन्द उपचार विधि: गन्ना, आलू, अदरक, घुइयाँ जैसी फसलों में जैव उर्वरकों के प्रयोग हेतु कन्दों को

उपचारित किया जाता है। एक किलोग्राम जैव उर्वरक को 20-30 लीटर घोलकर मिला देते हैं। इसके उपरान्त कन्दों को 10 मिनट तक घोल में डुबोकर रखने के पश्चात बुवाई कर देते हैं।

मृदा उपचार विधि: 4-5 किलोग्राम जैव उर्वरक 50-60 कि.ग्रा. मिट्टी या कम्पोस्ट का मिश्रण तैयार करके प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अन्तिम जुताई पर खेत में मिला देते हैं।

जैव उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियाँ:

जैव उर्वरक को हमेशा धूप या गर्मी से बचा कर रखना चाहिये। कल्चर पैकेट उपयोग के समय ही खोलना चाहिये। कल्चर द्वारा उपचारित बीज, पौध, मिट्टी या कम्पोस्ट का मिश्रण छाया में ही रखना चाहिये। कल्चर प्रयोग करते समय उस पर उत्पादन तिथि, उपयोग की अन्तिम तिथि, फसल का नाम आदि अवश्य लिखा देख लेना चाहिये। निश्चित फसल के लिये अनुमोदित कल्चर का उपयोग करना चाहिये।

जैव उर्वरकों के प्रकार:

जैव उर्वरक निम्न प्रकार के उपलब्ध हैं:-

  1. राइजोबियम कल्चर
  2. एजोटोबैक्टर कल्चर
  3. एजोस्पाइरिलम कल्चर
  4. नीलहरित शैवाल
  5. फास्फेटिक कल्चर

1.राइजोबियम कल्चर: यह एक सहजीवी जीवाणु है जो पौधो की जडों में वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके उसे पौधों के लिए उपलब्ध कराती है! यह खाद दलहनी फसलों में प्रयोग की जा सकती है तथा यह फसल विशिष्ट होती है, अर्थातअलग-अलग फसल के लिये अलग-अलग प्रकार का राइजोबियम जीवाणु खाद का प्रयोग होता है। राइजोबियम जीवाणु खाद से बीज उपचार करने पर ये जीवाणु खाद से बीज पर चिपक जाते हैं। बीज अंकुरण पर ये जीवाणु जड़ के मूलरोम द्वारा पौधों की जड़ों में प्रवेश कर जड़ों पर ग्रन्थियों का निर्माण करते हैं।

फसल विशिष्ट पर प्रयोग की जाने वाली राइजोबियम कल्चर:

दलहनी फसलें:मूँग, उर्द, अरहर, चना, मटर, मसूर; मटर; लोबिया; राजमा; मेथी इत्यादि।

तिलहनी फसलें: मूँगफली, सोयाबीन। अन्य फसलें: बरसीम, ग्वार आदि।

2. एजोटोबैक्टर कल्चर: यह जीवाणु खाद में पौधों के जड़ क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से रहने वाले जीवाणुओं

का एक नम चूर्ण रूप उत्पाद है, जो वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं। यह जीवाणु खाद दलहनी फसलों को छोड क़र सभी फसलों पर उपयोग में लायी जा सकती है। इसका प्रयोग सब्जियों जैसे- टमाटर; बैंगन; मिर्च; आलू; गोभीवर्गीय सब्जियों मे किया जाता है!

3. एजोस्पाइरिलम कल्चर: यह जीवाणु खाद भी मृदा में पौधों के जड़ क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से रहने

वाले जीवाणुओं का एक नम चूर्ण रूप उत्पाद है, जो वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं। यह जीवाणु खाद  धान, गन्ने;मिर्च; प्याज आदि फसल हेतु विशेष उपयोगी है।

4. नील हरित शैवाल खाद: एक कोशिकीय सूक्ष्म नील हरित शैवाल नम मिट्टी तथा स्थिर पानी में स्वतन्त्र रूप से रहते हैं। धान के खेत का वातावरण नील हरित शैवाल के लिये सर्वथा उपयुक्त होता है। इसकी वृद्धि के लिये आवश्यक ताप, प्रकाश, नमी और पोषक तत्वों की मात्रा धान के खेत में विद्य़मान रहती है।

प्रयोगविधि: धान की रोपाई के 3-4 दिन बाद स्थिर पानी में 12.5 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से सूखे जैव उर्वरक का प्रयोग करें। इसे प्रयोग करने के पश्चात 4-5 दिन तक खेत में लगातार पानी भरा रहने दें। इसका प्रयोग कम से कम तीन वर्ष तक लगातार खेत में करें। इसके बाद इसे पुनः डालने की आवश्यकता नहीं होती। यदि धान में किसी खरपतवारनाशी का प्रयोग किया है तो इसका प्रयोग खरपतवारनाशी के प्रयोग के 3-4 दिन बाद ही करें।

5. फास्फेटिक कल्चर: फास्फेटिक जीवाणु खाद भी स्वतन्त्रजीवी जीवाणुओं का एक नम चूर्ण रूप में उत्पाद है। नत्रजन के बाद दूसरा महत्वपूर्ण पोषक तत्व फास्फोरस है, जिसे पौधे सर्वाधिक उपयोग में लाते हैं। फास्फेटिक उर्वरकों का लगभग एक-तिहाई भाग पाध्ै ो अपने उपयोग मे ं ला पाते ह।ंै शेष घुलनशील अवस्था में ही जमीन में ही पड़ा रह जाता है, जिसे पौधे स्वयं घुलनशील फास्फोरस को जीवाणुओं द्वारा घुलनशील अवस्था में बदल दिया जाता है तथा इसका प्रयोग सभी फसलों में किया जा सकता है।

फास्फेटिक कल्चर की प्रयोग विधि: फास्फेटिक कल्चर या पी.एस.बी. कल्चर का प्रयोग रोपा लगाने के पूर्व धान पौध की जड़ों या बीज को बोने के पहले उपचारित किया जाता है। बीज उपचार हेतु 5-10 ग्राम कल्चर/किलोग्राम बीज दर से उपचारित करें। रोपा पद्धति में धान की जड़ों को धोने के बाद 300-400 ग्राम कल्चर के घोल में डुबाकर निथार लें, बाद में रोपाई करें। पी.एस.बी. कल्चर का भूमि में सीधे उपयोग की अपेक्षा बीजोपचार या जड़ों का उपचार अधिक लाभकारी होता है।

जैव उर्वरकों के उपयोग से लाभ:

  1. इसके प्रयोग सं फसलों की पैदावार में वृद्धि होती है।
  2. रासायनिक उवर्रक एवं विदशी मुद्रा की बचत होती है।
  3. ये हानिकारक या विषैले नही होते !
  4. मृदा को लगभग 25-30 कि.ग्रा./हे. नाइट्रोजन एवं 15-20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर फास्फोरस उपलब्ध कराना तथा मृदा की भौतिक एवं रासायनिक दशाओं में सुधार लाना।
  5. इनके प्रयोग से उपज में वृद्धि के अतिरिक्त गन्ने में शर्करा की, तिलहनी फसलों में तेल की तथा मक्का एवं आलू में स्टार्च की मात्रा में बढ़ोतरी होती है।
  6. विभिन्न फसलों में बीज उत्पादन कार्यक्रम द्वारा 15-20 प्रतिशत उपज में वृद्धि करना।
  7. किसानों को आर्थिक लाभ होता है।
  8. इनसे बीज उपचार करने से अंकुरण शीघ्र होता है तथा कल्लों की संख्या में वृद्धि होती है।
जैविक खाद: